Tuesday, July 21, 2015

प्रेरणा कथा: बुरा समय हमेशा नहीं रहता Prerna Katha: Bura Samaye Hamesha Nahi Rehta

प्रेरणा कथा: बुरा समय हमेशा नहीं रहता

 यह सिर्फ किसी राजा की कहानी नहीं है यह हम सब की कहानी है ! हम सभी परिस्थिति, काम, तनाव के दवाव में इतने जकड जाते हैं कि हमे कुछ सूझता नहीं है , हमारा डर हम पर हावी होने लगता है, कोई रास्ता, समाधान दूर दूर तक नजर नहीं आता, लगने लगता है कि बस, अब सब ख़तम ,है ना?

जब ऐसा हो तो २ मिनट शांति से बेठिये, थोड़ी गहरी गहरी साँसे लीजिये ! अपने आराध्य को याद कीजिये और स्वयं से जोर से कहिये --यह भी कट जाएगा ! आप देखिएगा एकदम से जादू सा महसूस होगा , और आप उस परिस्थिति से उबरने की शक्ति अपने अन्दर महसूस करेंगे ! आजमाया हुआ है ! बहुत कारगर है !

 पूरी कथा नीचे के विडीयो में देखें!

प्रेरणा कथा: बुरा समय हमेशा नहीं रहता Prerna Katha: Bura Samaye Hamesha ...

Monday, July 20, 2015

औंन लाइन पैसे कमाने के तरीके: १ क्युमी. कौम

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बुल्ले शाह अब हीर ना कहे: Bulle Shah Ab Heer Na Kahe

बुल्ले शाह अब हीर ना कहे

बुल्ले शाह अब हीर ना कहे

कौपीराइट@२०१५ राजा शर्मा

कैसे रोऊँ अब आँखों से के मेरी अब नीर ना बहे
कैसी बन गयी दुनिया रे के बुल्ला अब हीर ना कहे

बंदा रूप के गुमान में खोया
प्यार पैसे वाली छाओं में सोया
टूटी जाती है मोहब्बतों की माला
मोती इक इक आँसुओं से धोया
इस दुनिया में है कोई ऐसा के जो मेरी वाली पीर ना सहे
कैसी बन गयी दुनिया रे के बुल्ला अब हीर ना कहे

धर्म दिलों को चलाना चाहे
कई बेटे और बेटियों को खाये
कैसा नीच हो गया है जमाना
कांटों भरी हैं प्रेम की राहें
कोई इनको बता दो जाकर के प्रेमी साधु पीर ना कहे
कैसी बन गयी दुनिया रे के बुल्ला अब हीर ना कहे

जात पात के बहुत हैं बहाने
लोग खुद को लगे हैं सजाने
बस गैरों को है नीचे गिराना
लगे नारे आज गूंगे लगाने
ऐसी गंदी आज हुई है सियासत के देखो वीर वीर ना रहे
कैसी बन गयी दुनिया रे के बुल्ला अब हीर ना कहे

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं 4: इच्छाओं का ना होना (J. Krishnamurti)

जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं 4: इच्छाओं का ना होना  (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

जब एक शिक्षक इच्छाविहीन होना चाहता है तो उसको बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, और छात्र के द्रष्टिकोण से भी इसमे विशेष ध्यान देने की अवश्यकता होती है।

जैसा की "गुरु के कदमो में" नामक किताब में कहा गया है, "भगवान की पवित्र उपस्थिति के प्रकाश में सब इच्छाएं मर जाती हैं सिवाय प्रभु जैसा होने की इच्छा के।"

भगवद गीता में भी कहा गया है कि परमात्मा के दर्शन हो जाने पर सब इच्छाएं मर जाती हैं।

यही आदर्श लक्ष होना चाहिये कि एक इच्छा सभी परिवर्तित हो रही इच्छाओं का स्थान ले ले। यह परम इच्छा हमारे धर्म में दिखती है, और एक शिक्षक, जिसका धर्म अध्यापन है, लक्ष करे कि उसकी एक मात्र इच्छा पढ़ाने की हो और अच्छे से पढ़ाने की हो।

वास्तव में जब तक एक शिक्षक ये पढ़ाने की इच्छा नहीं महसूस करता शिक्षा उसका धर्म नहीं होता, क्योंकि ये इच्छा पढ़ाने की क्षमता से जुड़ी होती है।

हमनें पहले ही कहा कि दुर्भाग्यवश शिक्षक के पद के साथ कम सम्मान जुड़ा होता है, और एक व्यक्ति शिक्षक का पद प्रायः इसलिये स्वीकार करता है क्योंकि वो और कोई पद प्राप्त नहीं कर सकता। वो पढ़ाना शुरू करता है इसलिये नहीं कि पढ़ाने की उसकी इच्छा होती है बल्कि इस लिये की वो जानता है कि वो पढ़ा सकता है।

परिणाम ये होता है कि ऐसा शिक्षक और किसी वस्तु से ज्यादा अपनी तनख्वाह के बारे में सोचता है, और हमेशा ही और अधिक तनख्वाह वाले पद की खोज में रहता है। यही उसकी मुख्य इच्छा बन जाती है।

एक तरफ थोड़ा सा दोष तो शिक्षक को दिया ही जाता है, परंतु अधिकांशतः प्रणाली ही गलत होती है, क्योंकि शिक्षक को इतना तो चाहिये ही होता है कि अपने परिवार का पालन पोषन कर सके, और ये इच्छा उसमे होना सही और स्वभाविक भी है।

ये राष्ट्र का कर्तव्य होता है कि शिक्षक को किसी भी ऐसे पद पर ना आसीन किया जाये जहां वो हमेशा ही और ज्यादा तनख्वाह की कामना करता रहे, या और ज्यादा कमाने के लिये निजी शिक्षण, या प्राइवेट ट्यूशन लेना शुरू कर दे।

जब इस बात का ध्यान रखा जायेगा तभी शिक्षक संतुष्ट और प्रसन्न महसूस करेगा अपने पद पर काम करते हुए, और शिक्षक के धर्म की गरिमा को महसूस करेगा, चाहे उसका पद कैसा भी हो, हालांकि आजकल तनख्वाह के आधार अधिकतर पद छोटे या बड़े होते हैं।

मात्र वो व्यक्ति जो वास्तव में संतुष्ट और प्रसन्न है अच्छे से पढ़ाने के लिये स्वतंत्र मस्तिष्क का स्वामी हो सकता है।

शिक्षक को अपने लिये छात्रों को बाध्य करके श्रेय लेने की इच्छा नहीं होनी चाहिये, परंतु उसे प्रत्येक छात्र की विशेष प्रतिभा का ध्यान रखना चाहिये, और उस मार्ग का ध्यान रखना चाहिये जिसपर चल कर वो छात्र अधिकतम सफलता प्राप्त कर सकता है।

प्रायः ऐसा होता है कि एक शिक्षक मात्र अपने विषय के बारे में सोचते हुए ये भूल जाता है कि छात्र को और भी बहुत से विषय पढ़ने हैं। उसी विषय पर अधिक जोर देना चाहिये जिस विषय के लिये छात्र की क्षमता उपयुक्त हो।

जब तक शिक्षक एक दूसरे से सहयोग नहीं करते, छात्र पर बहुत अधिक दबाव होता है, क्योंकि प्रत्येक शिक्षक अपने विषय पर ज्यादा जोर देता है, और अपने ही विषय का ग्रह कार्य भी देता है। शिक्षक तो बहुत होते हैं, पर छात्र तो अकेला ही होता है।

परीक्षा में उत्कृष्ट परिणाम पाने के लिये शिक्षक को अपनी इच्छा से पहले छात्र के हित को आगे रखना चाहिये।

कभी कभी छात्र को अपने हित के लिये किसी विषय को पूर्ण रूप से समझने के लिये एक ही कक्षा में एक वर्ष और लगा देना चाहिये ना कि उस परीक्षा में बैठना चाहिये जो उसके लिये बहुत ही कठिन हो। ऐसी अवस्था में छात्र को एक वर्ष और उसी कक्षा में रोक देना चाहिये।
परंतु मात्र शिक्षक के लिये अच्छे परिणाम लाने के लिये छात्र को नहीं रोकना चाहिये।

दूसरी तरफ, शिक्षक को कभी कभी उन अभिभावकों का भी विरोध करना पड़ता है जो छात्र को उसकी क्षमता से ज्यादा करने के लिये बाध्य करते हैं, और उसको उपर की कक्षा में पहुंचाना चाहते हैं।

जबतक शिक्षक में इच्छा शून्यता नहीं होगी उसकी अपनी इच्छायें उसको अंधा बना देंगी और वो छात्रों को उनकी क्षमता से ज्यादा करने के लिये बाध्य करेगा। वो छात्रों पर अपनी इच्छायें लादेगा ना कि उनको स्वभाविक विकास करने देगा।

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं 3: विवेक (J. Krishnamurti)

जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं 3: विवेक  (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

शिक्षक की अगली आवश्यक योग्यता विवेक होती है। मेरे गुरु ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान मनुष्य के लिये भगवान की योजना का होता है, क्योंकि भगवान की एक योजना है, और वो योजना है क्रमिक विकास।

क्रमिक विकास में हर छात्र का अपना स्थान होता है, और शिक्षक को ये ध्यान देना चाहिये कि वो स्थान क्या है, और शिक्षक उस स्थान पर छात्र को कैसे सर्वश्रेष्ठ सहयोग कर सकता है।

इसको ही हिन्दू धर्म को मानने वाले धर्म कहते हैं, और ये शिक्षक का कर्तव्य होता है कि वो छात्र के धर्म को पहचाने और इसकी पूर्ति में छात्र को सहयोग करे।

दूसरे शब्दों में, छात्र को वही शिक्षा देनी चाहिये जो उसके लिये योग्य हो, और शिक्षक को इस शिक्षा को छानने में उसे अपने छात्र को देने में अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये।

इन अवस्थाओं के अंतर्गत, छात्र की प्रगति उसके पूर्व जन्मों की धारणाओं का अनुसरण करते हुए होती है, और वो छात्र उन सब चीजों को सच में याद करेगा जो उसको पहले से आती थी।

महान गुरु ने कहा, "क्रमिक विकास का तरीका पुनर्व्यवस्था अंतर्गत लगातार डूबना है और ये पुनर्जनम और कर्म से होता है।"

जबतक शिक्षक को ये जानकारी नहीं होती, वो क्रमिक विकास में वैसे काम नहीं कर सकता जैसे करना चाहिये, और उसका और उसके शिष्यों का बहुत समय व्यर्थ होगा।

विषयों को छानने की प्रक्रिया में और उनको कैसे पढ़ाना  है में विवेक की अवश्यकता होती है। महत्व के अनुसार, सबसे पहले धर्म और नैतिक मूल्य आते हैं, और इनको विषय के रूप में नहीं पढ़ाना चाहिये परंतु इनको विद्यालय के जीवन की आधारशिला और वातावरण बनाना चाहिये, क्योंकि इनकी अवश्यकता हर छात्र को होती है चाहे उसने बाद के जीवन में जो कुछ भी करना हो।

धर्म हमको सिखाता है कि हम सब एक आत्म के अंग हैं, और इसीलिये हमें एक दूसरे को सहयोग करना चाहिये।

मेरे गुरु कहते थे कि लोग अपने लिये वही रास्ते खोजने का प्रयास करते हैं जो उनके विचार में उनके लिये सुखद होते हैं, पर वो ये नहीं समझते कि सभी लोग एक ही हैं, और इसीलिये जो भगवान की इच्छा होती है वही सबके लिये सुखद होता है।

और गुरु ये भी कहते थे कि आप अपने भाई को सहयोग उन चीजों के द्वारा कर सकते हैं जो आप दोनो में सामान्य हों, और वही दैविक जीवन होता है। ये पढ़ाना ही धर्म पढ़ाना है, और इसके अनुसार जीना ही धार्मिक जीवन जीना है।

वर्तमान में विद्यालयों के अपने प्रबन्धों के कारण स्थायी नैतिक शिक्षा विस्तृत रूप में व्यर्थ हो गयी है।

विद्यालय का दिन धार्मिक सेवा के स्वभाव से शुरू होना चाहिये, सामान्य उद्देश्य और सामान्य जीवन के बारे में बताते हुए, ताकि सभी छात्र जो अलग अलग घरों से और अलग अलग जीवन शैलियों से आते हैं विद्यालय में एकता के सूत्र में बांध सकें।

ये एक अच्छी योजना होगी यदि विद्यालय के दिन का प्रारंभ थोड़े संगीत और गायन से शुरू हो ताकि सभी छात्र जो जल्दी जल्दी घर से खाना खाकर विद्यालय को भागते हैं थोड़ा शांत हो जायें और विद्यालय का दिन एक व्यवस्थित ढंग से शुरू कर सकें।

इसके बाद एक प्रार्थना होनी चाहिये और एक छोटा पर सुन्दर व्यक्तव्य जो छात्रों के सामने आदर्श प्रस्तुत कर सके।

पर यदि इन आदर्शों को उपयोगी बनाना है तो ये आदर्श दिन भर विद्यालय में अभ्यास करने चाहिये ताकि धर्म की आत्मा सभी अध्यायों और खेलों में समावेशित रहे।

उदाहरण के लिये शक्तिशाली ने कमजोर को सहयोग करना चाहिये धार्मिक घंटे में सिखाते हैं, और फिर भी दिन भर शक्तिशाली छात्र कमजोर छात्रों को पीछे छोड़ने में लगे रहते हैं, और सफल छात्रों को उनकी सफलता के लिये पुरस्कार भी दिये जाते हैं।

ये पुरस्कार कतिपय छात्रों को ईष्यालु बना सकते हैं और कई छात्रों को हतोत्साहित कर सकते हैं। इन पुरस्कारों से संघर्ष का मनोबल उत्तेजित होता है। सेंट्रल हिन्दू कौलेज ब्रदरहुड का सिद्धांत है, "प्रेम और सेवा को और शक्ति प्रदान करना ही आदर्श पुरस्कार होता है।"

यदि ये पुरस्कार अच्छे कामों, औरों को सहयोग करने के लिये, और अच्छे व्यवहार के लिये दिये जायें तो बहुत अच्छा है, प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करने के लिये ना दिये जायें।

वास्तव में विद्यालय में चरित्र और सहयोग को सम्मान दिया जाना चाहिये ना कि दिमाग और शरीर की शक्ति को; शक्तिशाली बनाने की तालीम देनी चाहिये और शक्ति का विकास करना चाहिये, परंतु कमजोर को पराजित करने के लिये पुरस्कृत नहीं करना चाहिये।

विद्यालय के ऐसे जीवन के द्वारा विश्व में ऐसे मनुष्य जायेंगे जो राष्ट्र के लिये उपयोगी स्थानों में काम करेंगे नाकि सिर्फ अपने लिये पैसे और शक्ति संकलन करेंगे।

देशभक्ति और राष्ट्रा प्रेम नैतिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग होता है। विद्यालय में छोटे से परिवार की सेवा का भाव सीखने के बाद वो छात्र बड़ा होकर स्वभाविक रूप में राष्ट्र के बड़े परिवार की सेवा करने लगेगा।

देशभक्ति का पाठ बहुत सावधानी से पढ़ाना चाहिये ताकि छात्र और राष्ट्रों से घृणा ना करने लगे जैसा कि प्रायः होता ही है।

पढ़ने वाले अध्यायों के प्रबंधन करते समय विवेक की अवश्यकता होती है। जहां तक संभव हो सबसे कठिन विषय दिन के प्रारम्भिक घंटों में ही पढ़ाये जायें। चाहे जितनी भी व्यवस्थित ढंग से अध्यापन की शैली तैयार की गयी हो, छात्र दिन की शुरुवात की तुलना में दिन के अंत के घंटों में बहुत थक जाते हैं।

पढ़ाने के तरीकों, और मानसिक और शारीरिक शिक्षा के लिये भी विवेक की अवश्यकता होती है। शरीर का ध्यान और इसका विकास सबसे महत्वपूर्ण होता है क्योंकि स्वस्थ शरीर के बिना सब शिक्षा व्यर्थ होती है।

ये ध्यान रखना चाहिये कि एक छात्र सारा जीवन ही सीख सकता है यदि वो इतना बुद्धिमान है और वो ऐसा करना चाहता है, परंतु उसके विकास के शुरू के ही कुछ वर्षों में वो अपने शरीर का विकास कर सकता है और स्वस्थ शरीर के साथ अपना जीवन बिता सकता है।

छात्रों के दिमाग, और विशेष कर बहुत छोटे छात्रों के दिमाग पर तनाव बहुत अधिक होता है और बहुत लम्बे समय तक चलता है; इसीलिये अध्याय योजना छोटे छोटे खण्डों में होनी चाहिये, और शिक्षक को ये ध्यान रखना चाहिये की छात्र थक ना जायें।

इस तनाव को छात्रों से दूर रखने के लिये एक विवेकशील शिक्षक पढ़ाने के नये तरीके खोजेगा, जिनके द्वारा पढ़ाये जा रहे अध्याय मनोरंजक हो जायें, क्योंकि जो छात्र अध्याय में रुचि रखता है जल्दी थकता नहीं है।

मुझे स्वयं भी याद है की विद्यालय से घर आने के बाद हम कितने थके हुए होते थे, सिर्फ बिस्तर पर लेट जाने के सिवाय कुछ ना करने योग्य।

लेकिन भारत में छात्र को घर वापिस आ जाने के बाद भी आराम करने की अनुमती नहीं होती है क्योंकि उसको ग्रह कार्य करना पड़ता है, प्रायः एक शिक्षक के सहयोग के साथ, जबकि या तो उसे खेलना चाहिये या आराम करना चाहिये।

घर में पढ़ने वाले अध्याय दूसरी सुबह फिर शुरू हो जाते हैं उसके विद्यालय जाने से पहले, और इसके परिणामस्वरूप वो अपने अध्यायों को आनंद के साथ ना पढ़कर एक कठिन काम मानना शुरू कर देता है।

भारतीय घरों में छात्र अधिकांश ग्रह कार्य मंद प्रकाश में करते हैं और इसके परिणामस्वरूप छात्र की आँखों पर बुरा असर होता है। सब प्रकार के ग्रह कार्य समाप्त कर दिये जाने चाहिये। ग्रह कार्य से छात्र को दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है और छात्र का जीवन एक गुलाम जैसा हो जाता है।

विद्यालय का समय भी बहुत लम्बा होता है, और एक विवेकी शिक्षक को जितना हो सके छात्रों को ज्ञान देते रहना चाहिये पर ये ध्यान रखते हुए कि उनकी रुचि कम ना हो। अगर वो पूरा अध्याय एक दिन में समाप्त नहीं कर सकता तो उसको दूसरे दिन जारी रखना चाहिये।

मैने तो सुना है की विलायत के गरीब विद्यालयों में भी प्रायः डाक्टर आकर छात्रों को जाँचते हैं ताकि उनको कोई आँखों का रोग ना लगे या और कोई शारीरिक कमी ना हो जाये।

शिक्षक और छात्र दोनो को ही स्वच्छ रहना चाहिये और स्वच्छ कपड़े पहनने चाहिये, और इसमें विवेक की अवश्यकता होती है।

शिक्षक ने कमजोर छात्रों पर चतुर छात्रों से अधिक ध्यान देना चाहिये।

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं 2: प्रेम (J. Krishnamurti)

जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं 2: प्रेम (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

मेरे गुरु ने मुझको सिखाया कि प्रेम मनुष्य को सभी दूसरे गुण प्राप्त करने के योग्य बनाता है और इसके बिना बाकी का कुछ भी कभी भी पर्याप्त नहीं होता है।

इसीलिये जबतक एक व्यक्ति उसके दैनिक जीवन में ये ना दिखा दे कि प्रेम उसके स्वभाव का सबसे सुद्रढ़ गुण है उसको शिक्षक नहीं होना चाहिये, उसको शिक्षक बनने ही नहीं देना चाहिये।

ये पूछा जा सकता है: हमें ये कैसे जानकारी होगी के उस व्यक्ति में पर्याप्त मात्रा में प्रेम है जो उसको शिक्षक बनने के योग्य बनाता हो?

जैसे एक बालक अपने जीवन के शुरू के वर्षों में ही किसी एक अथवा दूसरे पेशे के प्रति अपनी स्वभाविक क्षमतायें दिखता है, वैसे ही विशेष बलशाली प्रेम का स्वभाव उसको शिक्षक बनने के योग्य प्रदर्शित करता है।

जैसे और बालक दूसरे पेशों के लिये तैयार किये जाते हैं वैसे ही प्रेमपूर्ण स्वभाव वाले बालक शिक्षा के धर्म के लिये तैयार किये जाने चाहिये।

बालक जो एक सी पाठशाला में अपने भविष्य की तैयारी कर रहे होते हैं एक सामान्य जीवन बिताते हैं, और यदि उनका पाठशाला का जीवन सुखी होता है तो वो बड़े होकर राष्ट्र के लिये उपयोगी हो सकते हैं।

एक छोटा बालक स्वभाविक रूप से ही प्रसन्न रहता है, और यदि वो प्रसन्नता पाठशाला में भी जाकर बढ़ती है, और घर में भी बढ़ती है, तो वो बालक बड़ा होने के बाद औरों को भी प्रसन्न कर देगा।

प्रेम से भरा हुआ शिक्षक छात्रों को अपनी और आकर्षित करता है और उनके पाठशाला के जीवन को खुशहाल बनाता है।

मेरे गुरु ने एक बार कहा कि "बच्चे सीखने के लिये बहुत आतुर होते हैं और यदि शिक्षक उनमे रुचि नहीं उत्पन्न कर सकता और उनको अपने अध्यायों से प्रेम करने के योग्य नहीं बना सकता तो वो शिक्षक होने के योग्य नहीं है और उसको कोई दूसरा पेशा चुन लेना चाहिये।

गुरु जी ये भी कहते थे: वो जो मेरे हैं शिक्षण से और सेवा करने से प्रेम करते हैं। वो सेवा के अवसर की तलाश में रहते हैं जैसे भूखा व्यक्ति खाने की तलाश में रहता है, और वो हमेशा इसको खोजते रहते हैं।

उनके हृदय दैविक प्रेम से इतने भरे होते हैं की वो अपने आस पास के लोगों को भी प्रेम में ओत प्रोत कर देते हैं।

मात्र ऐसे लोग ही शिक्षक बनने के योग्य होते हैं जिनके लिये अध्यापन मात्र पवित्र और अवश्यक काम ही नहीं बल्कि सबसे बड़ा आनंद भी हो।

एक सद्भावुक शिक्षक अपने शिष्यों के सभी अच्छे गुण बाहर निकालता है, और उसकी विनम्रता उसके छात्रों को उससे भयभीत नहीं होने देती।

प्रत्येक छात्र फिर खुद को वास्तव में प्रदर्शित करता है, और शिक्षक उसके लिये सबसे उपयुक्त मार्ग खोज देता है और उसका अनुसरण करने में छात्र का सहयोग करता है।

ऐसे शिक्षक के पास छात्र अपनी सभी कठिनाइयां लेकर आता है ये जानते हुए कि शिक्षक उससे सहानुभूति और विनम्रता के साथ मिलेंगे, और, अपनी कमजोरियों को छुपाने की जगह वो छात्र खुशी से सब कुछ उस शिक्षक को बता देगा जिसके प्रेमपूर्ण सहयोग के बारे में वो आश्वस्त है।

अच्छा शिक्षक अपनी युवावस्था को याद रखता है, और इसीलिये वो उस छात्र की भावनाओं को महसूस कर सकता है जो उसके पास आता है।

मेरे गुरुजी कहते थे: "वो व्यक्ति जिसने अपने बाल्यकाल को भुला दिया है और बच्चों के प्रति सहानुभूति खो दी है उनको पढ़ाने या उनको सहयोग करने के योग्य नहीं होता।"

छात्र की रक्षा और उसको सहयोग करते हुए, शिक्षक का ये प्रेम बदले में छात्र की तरफ से भी प्रेम लाता है, और जैसे जैसे वो अपने शिक्षक को आदर्श मानने लगता है ये प्रेम आदर का रूप ले लेता है।

बालक के मन में उत्पन्न हुआ ये सम्मान जैसे जैसे वो बढ़ा होता जाता है बढ़ता ही जाता है, और देखने और महानता का आदर करने की उसकी आदत हो जाती है, और शायद यही गुण समय के साथ उस छात्र को गुरु के कदमों पे ले आता है।

बालक के प्रति शिक्षक का प्रेम उस बालक को विनम्र बना देता है और उसको निर्देशित करना आसान हो जाता है, और इस कारण दंड देने का तो कभी प्रश्न ही नहीं उठता।

इस तरह डर का एक बड़ा कारण जो वर्तमान में शिक्षक और छात्र के सम्बंधों को विषाक्त बनाता है गायब हो जायेगा। हम में से वो लोग जो सच्चे गुरुओं के शिष्य होने का सुख जानते हैं ये भी जानते हैं की छात्र और शिक्षक के बीच के सम्बंध कैसे होने चाहिये।

हम जानते हैं की कितने शानदार धैर्य, विनम्रता, और सहानुभूति के साथ हमारे गुरु हमसे हमेशा मिलते हैं तब भी जबकि हमने गलतियाँ की होती हैं या हम कमजोर रहे होते हैं।

फिर भी उनमें और हममे और साधारण शिक्षक और उसके शिष्यों के बीच में बहुत अधिक फरक होता है।

जब शिक्षक ये समझ जाता है की उसका काम देश की सेवा में उसका समर्पण है, जैसा की गुरु ने खुद को मानवता की सेवा में समर्पित किया है, तो वो शिक्षक विश्व के महान शिक्षण विभाग का अंग बन जाता है, जिससे की मेरे आदरणीय गुरु जी भी सम्बंध रखते हैं, जिसका प्रमुख भगवानों और मनुष्यों का सर्वोच्च शिक्षक होता है।

ऐसा कहा जा सकता है की प्रेम से बहुत से छात्रों को नहीं संभाला जा सकता है। इसका उत्तर है की ऐसे छात्रों को बुरे व्यवहार द्वारा पहले ही बिगाड़ दिया गया है। फिर भी उन छात्रों को और अधिक धैर्य और निरंतर प्रेम से धीरे धीरे सुधारना ही चाहिये। जब भी ये नीति अपनाई गयी है हमेशा ही सफल हुई है।

पाठशाला के समय के दौरान प्रेम के वातावरण में रहकर बालक और अधिक अच्छा पुत्र और घर में और अधिक अच्छा भाई बन जायेगा, और अपने साथ जोश और जीवन की भावना घर ले कर आयेगा, ना कि सामान्यतः वो जैसे निराश और थका हुआ घर आता है।

बाद में जब वो घर का मुखिया बन जायेगा तो वो घर को उस प्रेम से भर देगा जिस प्रेम में उसका अपना पालन पोषन हुआ है, और पीढी दर पीढी खुशहाली फैलती और बढ़ती ही जायेगी।

ऐसा बालक जब पिता बन जायेगा तो वो अपने पुत्र को इस तरह नहीं देखेगा जैसे कि बहुत से लोग आज देखते हैं, नितांत स्वार्थी द्रष्टिकोण से, मानो वो पुत्र मात्र संपत्ती का एक अंश है, मानो वो पुत्र मात्र पिता के लिये ही अस्तित्व में है।

कुछ अभिभावक अपने बच्चों को अपनी संपन्नता बढ़ाने और पेशों के द्वारा, जो वो अपनाते हैं, या शादियों के द्वारा, परिवार की इज़्ज़त बढ़ाने का साधन ही मानते हैं, बिना ये सोचे की बच्चों की अपनी इच्छाएं क्या हैं।

बुद्धिमान पिता अपने पुत्र के साथ मित्र की तरह परामर्श करता है, ये जानने की कोशिश करता है की पुत्र की इच्छाएं क्या हैं, और उन इच्छाओं को पूरा करने के लिये अपने अनुभव से सहयोग करता है। बुद्धिमान पिता ये हमेशा याद रखता है की उसका पुत्र एक अहम है जो पिता को पुत्र की प्रगति में सहयोग करके अच्छे कर्म करने का मौका देने आया है।

वो पिता कभी ये नहीं भूलेगा की बेटे का शरीर तो जवान है पर उसमें आत्मा उसकी अपनी आत्मा जितनी ही वृध है, और इसीलिये उसको इज़्ज़त देनी चाहिये और स्नेह पूर्ण व्यवहार करना चाहिये।

दोनो जगह, घर में और पाठशाला में, प्रेम सेवा के छोटे छोटे कामों में स्वयं ही व्यक्त होने लगेगा, और ये एक आदत बन जायेगी जिसके परिणामस्वरूप बड़े बड़े और बहादुरी पूर्ण महान काम होने लगेंगे जिनसे राष्ट्रा महानता को प्राप्त करेगा।

गुरु जोर देकर कहते हैं की निर्दयता प्रेम के विरोध में किया गया पाप है, और इच्छा पूर्वक और अनिच्छा पूर्वक की गयी निर्दयता का फरक समझते हैं।

गुरु कहते हैं, "इच्छापूर्वक की गयी निर्दयता दूसरे प्राणी को दर्द देने के लिये जानबूझकर की जाती है, और ये सबसे बड़ा पाप है। ये एक दुष्टात्मा का काम है मनुष्य का नहीं।"

लट्ठ का प्रयोग इस प्रकार की निर्दयता अंतर्गत आता है। गुरु इच्छापूर्वक की गयी निर्दयता के बारे में कहते हैं, "विद्यालय के बहुत से शिक्षक इस प्रकार की निर्दयता करने के आदी होते हैं।"

दंड और अत्याचार में वो सब शब्द भी शामिल होते हैं जो छात्र की भावना को और उसके आत्म सम्मान को क्षति पहुंचाने के लिये प्रयोग किये जाते हैं।

कुछ देशों में शारीरिक दंड निषेध है, परंतु अधिकांश देशों में ये अभी भी प्रचलित है। लेकिन मेरे गुरु ने कहा, "ये क्रूर लोग अपनी निर्दयता को छुपाने के लिये कहते हैं की ये तो प्रचलन है, लेकिन अपराध को ये कहकर की बहुत से लोग करते हैं अपराध की श्रेणी से हटाया नहीं जा सकता।"

कर्म में प्रचलन को कोई हिसाब नहीं होता, और निर्दयी कर्म सबसे भयंकर होता है।

शिक्षा में दंड का प्रयोजन गलत ही नहीं मूर्खतापूर्ण है। एक शिक्षक जो अपने छात्रों को भयभीत करके वो करने में लगा तो सकता है जो शिक्षक चाहता है, पर वो ये नहीं देखता कि छात्र उसकी बात तबतक ही मानते हैं जबतक वो कक्षा में होता है, और जैसे ही वो आँखों से दूर होता है छात्र उसके बनाये नियमों को ध्यान नहीं देते, और उन्हें तो उन नियमों को तोड़ने में आनंद आता है क्योंकि वो छात्र उस शिक्षक को अच्छा नहीं मानते।

परंतु यदि उनसे वो करवाना चाहता है जो वो चाहता है क्योंकि उसके छात्र उससे प्रेम करते हैं तो छात्र उसकी अनुपस्थिति में भी उसके नियमों का पालन करते हैं और शिक्षक के कार्य को और भी आसान बना देते हैं।

छात्रों के मन में भय और घृणा का विकास करने के स्थान पर बुद्धिमान शिक्षक उन छात्रों में से प्रेम और निष्ठा निकाल लेता है, और उनकी अच्छाइयों को और भी बल प्रदान करता है, और उनके क्रमिक विकास में उनको सहयोग देता है।

किसी उद्दंड छात्र को सुधारने के स्थान पर विद्यालय से निकल देने का विचार बिल्कुल गलत है।

जब कभी उसके और साथियों के लिये किसी छात्र को अलग करना भी पड़े तो उस छात्र की अच्छाइयां नहीं भूलनी चाहिये। वास्तव में विद्यालय का पूरा अनुशासन छात्रों के अच्छे गुणों को ध्यान में रखकर लगाना चाहिये, ना की शिक्षक को कठिनाई से बचने के लिये। प्रेम करने वाला शिक्षक समस्याओं की तरफ़ ध्यान नहीं देता।

अनिच्छा पूर्वक की गयी निर्दयता प्रायः विचारशून्यता के कारण ही होती है, और शिक्षक को ना तो अपने शब्दों में और ना ही विचारों के अभाव में अपने कार्य में कठोर नहीं होना चाह्ये।

बाहर की किसी समस्या या क्रोध के कारण, अथवा किसी और महत्वपूर्ण कार्य को करते समाये, प्रायः शिक्षक जल्दी से बोले गये शब्दों से छात्रों को दर्द पहुंचते हैं।

शिक्षक शायद अपने बोले गये कठोर शब्दों को कोई छोटी मोटी घटना मान कर भूल सकता है, परंतु ऐसे अधिकांश घटनाक्रमों में संवेदनशील छात्र का मन दुख जाता है, और वो छात्र उन शब्दों के बारे में सोचना है और अंत में अनेकों प्रकार के मूर्खतापूर्ण अतिशयोक्तियों की कल्पना करने लगता है।

इस तरह शिक्षकों और छात्रों के बीच असमंजस उत्पन्न हो सकता है, वैसे तो छात्रों को ये धैर्य रखना सीखना ही चाहिये और उदार होना चाहिये, और ये समझना चाहिये की शिक्षक उनको सहयोग करने के लिये आतुर है, पर उसी तरह शिक्षक को भी अपने शब्दों का प्रयोग करते समय सावधान रहना चाहिये, और शिक्षक के शब्दों और कार्यों में विनम्रता ही होनी चाहिये चाहे शिक्षक कितना भी व्यस्त क्यों ना हो।

यदि शिक्षक अपने छात्रों के साथ हमेशा विनम्र रहता है तो वो अपने से छोटे छात्रों को आसानी से कुछ भी सीखा सकता है। वास्तव में वो विनम्रता से किसी भी जीवित प्राणी को कुछ भी सीखा सकता है।

बड़े छात्रों को, जो स्वयं विनम्र और चतुर हैं, सड़कों में घूमने वाले जानवरों की अवस्था का अवलोकन करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये, और यदि वो किसी भी प्रकार की निर्दयता जानवरों के प्रति देखते हैं तो उन्हें क्रूरता करने वाले व्यक्ति को हाथ जोड़ कर विनम्रता से पशुओं के साथ कठोरता ना बरतने के लिये अनुरोध करना चाहिये।


छात्रों को सीखना चाहिये की कोई भी ऐसा कार्य जिसमे जानवरों का शिकार और हत्या समावेशित हो खेल नहीं कहा जा सकता।

खेलों और शारीरिक अभ्यास वाले खेलों को बढ़ावा देना चाहिये और जानवरों को घायल करने और मारने जैसे कार्यों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये।

मेरे गुरु कहते हैं, "वो सभी लोगों के भाग्य में अंत में निर्दयता ही आती है जो लोग जान बूझकर भगवान के प्राणियों को मारते हैं और इसको खेल का नाम देते हैं।"

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं १: शिक्षक (J. Krishnamurti)


जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं १: शिक्षक (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

मेरी किताब "गुरु के कदमों में" मैने मेरे गुरु के द्वारा दिये गये निर्देश लिखे हैं जिन्होंने मुझे अपने आस पास के लोगों के लिये उपयोगी होना सिखाया।

वो सभी व्यक्ति जिन्होने किताब पढ़ी है जानते हैं कि  गुरु के शब्द कितने प्रेरणादायी हैं, और कैसे वो शब्द उन लोगों को दूसरों के लिये उपयोगी होना सीखाते हैं।

मुझे मालूम है कि मुझे उन लोगों से कितना सहयोग मिला है जिन लोगों की तरफ मैं निर्देशन के लिये देखता हूँ, और मैं वो सब कुछ जो मैने उन निर्देशकों से पाया है औरों को देना चाहता हूँ।

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु के निर्देश विश्व्यापी रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं। ये शब्द न केवल उन लोगों के लिये जो निश्चय ही ज्ञान के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं बल्कि उन लोगों के लिये भी उपयोगी होंगे जो जीवन में साधारण काम करते हुए भी अपने कर्तव्य को गंभीरता पूर्वक और निस्वार्थ पूर्वक कर रहे हैं।

ऐसे जीवन के कामों में सबसे महत्वपूर्ण कामों में से एक काम शिक्षक का होता है। आइये देखें गुरु ने इस काम पर अपने शब्दों से कैसे प्रकाश डाला है।

मैं वो चार योग्यतायों की चर्चा करूंगा जो कि "गुरु के कदमों में" नामक किताब में दी गयी हैं, और ये दिखाने का प्रयास करूंगा कि ये चार योग्यतायें शिक्षक, छात्र, और उनके बीच के सम्बंधों में कैसे प्रयोग की जा सकती हैं।

सबसे महत्वपूर्ण योग्यता है 'प्रेम', और मैं इसकी चर्चा पहले करूंगा। ऐसा कहते हैं कि आज के आधुनिक समय में शिक्षक के काम को और सीखे हुए पेशों जितना सम्मान नहीं मिलता है।

आज कोई भी शिक्षित व्यक्ति को शिक्षक मान लिया जाता है, और परिणाम स्वरूप उसको कम  सम्मान प्राप्त होता है। इसलिये ये स्वभाविक है कि सबसे प्रतिभाशाली छात्र शिक्षक के पेशे की तरफ़ आकर्षित नहीं होते हैं।

लेकिन वास्तविकता में शिक्षक का कर्म सबसे पवित्र और राष्ट्र के लिये सबसे महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इस द्वारा उन बाल बालिकाओं के चरित्र का निर्माण होता है जो भावी नागरिक होने वाले होते हैं।

प्राचीन समय में इस कार्य को इतना पवित्र  माना जाता था कि  मात्र मंदिर के पुजारी ही शिक्षक होते थे और पाठशाला मंदिर का ही एक भाग होती थी।

भारत में तो शिक्षक पर इतना विश्वास किया जाता था कि  अभिभावक गण अपने पुत्रों को कई वर्षों के लिये शिक्षक के संरक्षण में छोड़ देते थे, और छात्र और शिक्षक एक परिवार की तरह संग रहते थे।

क्योंकि अब ये मधुर सम्बंध फिर से वापिस लाना होगा इसीलिये मैं शिक्षक की योग्यताओं में 'प्रेम' को सबसे पहले रखता हूँ, और ये प्रेम की योग्यता शिक्षक में होनी ही चाहिये।

यदि भारत को फिर से एक महान राष्ट्र बनाना है जो हम सब देखने की आशा करते हैं तो इस पुराने मधुर सम्बंध को पुनर्स्थापित करना होगा।

यह श्रंखला जारी रहेगी......धन्यवाद।

जीवन क्या है? (आपके विचार...)

कहते हैं परिवार एक सबसे पवित्र और भरोसे योग्य इकाई होती है, परन्तु इसी परिभाषा को जीते जीते जीवन के पचास वर्ष बिता दिए और अब तक सत्य के नज्दीक तक भी नही पहुंचा हूँ।

बचपन में माता पिता, भाई बहन, दादा दादी, चाचा चाची इत्यादी के साथ खेल्ने उनसे सीखने और अपनी मान्गों को पूरा कराने में ही बहुत प्रसन्नता होती थी। २० वर्ष शिक्षा को दे दिए और अब लगभग २५ वर्ष अपने परिवार को दे दिए। जीवन में जो चाहा वो किया और बच्चों को बहुत उच्च शिक्षा भी देने में सफल हुआ । इतना सब होने के बाद भी ऐसा लगता है के क्या किया। बहुत किताबें लिखी और पैसे भी काफी कमाए और वो सब कुछ भी किया जो एक व्यक्ति पैसे से कर सकता है पर अब ऐसा लग रहा है के जीवन बस एक छोटी सी घटना है और जीवन समाप्त होने के बाद कुछ नही है।

मैने ज्ञान लिया, आगे दिया, लोगों को सफल होते देखा और यश भी कमाया पर अब ऐसा प्रतीत होने लगा है के क्या जीवन एक बार फिर से शुरु हो सकता है क्योंकी मैं इस ज्ञान को लेकर फिर से बाल्यकाल में जाना चाहुंगा और जीवन फिर से शुरु करना चाहुंगा ।  आप लोग हँस रहे होंगे के ये कोई पागल है, जी मैं पागल ही हूँ क्योंकी मैं दुनिया के लगभग सात अरब पागलों के साथ् जीवन बिताता आया हूँ।

मैने कुछ शुरु किया है आप भी अपने पागलपन को मेरे साथ् बाँट ले और अपने पागलपन से कुछ लिख कर भेज दें। आपके विचारों को मैं बहुत ही सहज भाव से स्वीकार करुन्गा।

आपका

राजा शर्मा