Monday, July 20, 2015

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं 2: प्रेम (J. Krishnamurti)

जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं 2: प्रेम (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

मेरे गुरु ने मुझको सिखाया कि प्रेम मनुष्य को सभी दूसरे गुण प्राप्त करने के योग्य बनाता है और इसके बिना बाकी का कुछ भी कभी भी पर्याप्त नहीं होता है।

इसीलिये जबतक एक व्यक्ति उसके दैनिक जीवन में ये ना दिखा दे कि प्रेम उसके स्वभाव का सबसे सुद्रढ़ गुण है उसको शिक्षक नहीं होना चाहिये, उसको शिक्षक बनने ही नहीं देना चाहिये।

ये पूछा जा सकता है: हमें ये कैसे जानकारी होगी के उस व्यक्ति में पर्याप्त मात्रा में प्रेम है जो उसको शिक्षक बनने के योग्य बनाता हो?

जैसे एक बालक अपने जीवन के शुरू के वर्षों में ही किसी एक अथवा दूसरे पेशे के प्रति अपनी स्वभाविक क्षमतायें दिखता है, वैसे ही विशेष बलशाली प्रेम का स्वभाव उसको शिक्षक बनने के योग्य प्रदर्शित करता है।

जैसे और बालक दूसरे पेशों के लिये तैयार किये जाते हैं वैसे ही प्रेमपूर्ण स्वभाव वाले बालक शिक्षा के धर्म के लिये तैयार किये जाने चाहिये।

बालक जो एक सी पाठशाला में अपने भविष्य की तैयारी कर रहे होते हैं एक सामान्य जीवन बिताते हैं, और यदि उनका पाठशाला का जीवन सुखी होता है तो वो बड़े होकर राष्ट्र के लिये उपयोगी हो सकते हैं।

एक छोटा बालक स्वभाविक रूप से ही प्रसन्न रहता है, और यदि वो प्रसन्नता पाठशाला में भी जाकर बढ़ती है, और घर में भी बढ़ती है, तो वो बालक बड़ा होने के बाद औरों को भी प्रसन्न कर देगा।

प्रेम से भरा हुआ शिक्षक छात्रों को अपनी और आकर्षित करता है और उनके पाठशाला के जीवन को खुशहाल बनाता है।

मेरे गुरु ने एक बार कहा कि "बच्चे सीखने के लिये बहुत आतुर होते हैं और यदि शिक्षक उनमे रुचि नहीं उत्पन्न कर सकता और उनको अपने अध्यायों से प्रेम करने के योग्य नहीं बना सकता तो वो शिक्षक होने के योग्य नहीं है और उसको कोई दूसरा पेशा चुन लेना चाहिये।

गुरु जी ये भी कहते थे: वो जो मेरे हैं शिक्षण से और सेवा करने से प्रेम करते हैं। वो सेवा के अवसर की तलाश में रहते हैं जैसे भूखा व्यक्ति खाने की तलाश में रहता है, और वो हमेशा इसको खोजते रहते हैं।

उनके हृदय दैविक प्रेम से इतने भरे होते हैं की वो अपने आस पास के लोगों को भी प्रेम में ओत प्रोत कर देते हैं।

मात्र ऐसे लोग ही शिक्षक बनने के योग्य होते हैं जिनके लिये अध्यापन मात्र पवित्र और अवश्यक काम ही नहीं बल्कि सबसे बड़ा आनंद भी हो।

एक सद्भावुक शिक्षक अपने शिष्यों के सभी अच्छे गुण बाहर निकालता है, और उसकी विनम्रता उसके छात्रों को उससे भयभीत नहीं होने देती।

प्रत्येक छात्र फिर खुद को वास्तव में प्रदर्शित करता है, और शिक्षक उसके लिये सबसे उपयुक्त मार्ग खोज देता है और उसका अनुसरण करने में छात्र का सहयोग करता है।

ऐसे शिक्षक के पास छात्र अपनी सभी कठिनाइयां लेकर आता है ये जानते हुए कि शिक्षक उससे सहानुभूति और विनम्रता के साथ मिलेंगे, और, अपनी कमजोरियों को छुपाने की जगह वो छात्र खुशी से सब कुछ उस शिक्षक को बता देगा जिसके प्रेमपूर्ण सहयोग के बारे में वो आश्वस्त है।

अच्छा शिक्षक अपनी युवावस्था को याद रखता है, और इसीलिये वो उस छात्र की भावनाओं को महसूस कर सकता है जो उसके पास आता है।

मेरे गुरुजी कहते थे: "वो व्यक्ति जिसने अपने बाल्यकाल को भुला दिया है और बच्चों के प्रति सहानुभूति खो दी है उनको पढ़ाने या उनको सहयोग करने के योग्य नहीं होता।"

छात्र की रक्षा और उसको सहयोग करते हुए, शिक्षक का ये प्रेम बदले में छात्र की तरफ से भी प्रेम लाता है, और जैसे जैसे वो अपने शिक्षक को आदर्श मानने लगता है ये प्रेम आदर का रूप ले लेता है।

बालक के मन में उत्पन्न हुआ ये सम्मान जैसे जैसे वो बढ़ा होता जाता है बढ़ता ही जाता है, और देखने और महानता का आदर करने की उसकी आदत हो जाती है, और शायद यही गुण समय के साथ उस छात्र को गुरु के कदमों पे ले आता है।

बालक के प्रति शिक्षक का प्रेम उस बालक को विनम्र बना देता है और उसको निर्देशित करना आसान हो जाता है, और इस कारण दंड देने का तो कभी प्रश्न ही नहीं उठता।

इस तरह डर का एक बड़ा कारण जो वर्तमान में शिक्षक और छात्र के सम्बंधों को विषाक्त बनाता है गायब हो जायेगा। हम में से वो लोग जो सच्चे गुरुओं के शिष्य होने का सुख जानते हैं ये भी जानते हैं की छात्र और शिक्षक के बीच के सम्बंध कैसे होने चाहिये।

हम जानते हैं की कितने शानदार धैर्य, विनम्रता, और सहानुभूति के साथ हमारे गुरु हमसे हमेशा मिलते हैं तब भी जबकि हमने गलतियाँ की होती हैं या हम कमजोर रहे होते हैं।

फिर भी उनमें और हममे और साधारण शिक्षक और उसके शिष्यों के बीच में बहुत अधिक फरक होता है।

जब शिक्षक ये समझ जाता है की उसका काम देश की सेवा में उसका समर्पण है, जैसा की गुरु ने खुद को मानवता की सेवा में समर्पित किया है, तो वो शिक्षक विश्व के महान शिक्षण विभाग का अंग बन जाता है, जिससे की मेरे आदरणीय गुरु जी भी सम्बंध रखते हैं, जिसका प्रमुख भगवानों और मनुष्यों का सर्वोच्च शिक्षक होता है।

ऐसा कहा जा सकता है की प्रेम से बहुत से छात्रों को नहीं संभाला जा सकता है। इसका उत्तर है की ऐसे छात्रों को बुरे व्यवहार द्वारा पहले ही बिगाड़ दिया गया है। फिर भी उन छात्रों को और अधिक धैर्य और निरंतर प्रेम से धीरे धीरे सुधारना ही चाहिये। जब भी ये नीति अपनाई गयी है हमेशा ही सफल हुई है।

पाठशाला के समय के दौरान प्रेम के वातावरण में रहकर बालक और अधिक अच्छा पुत्र और घर में और अधिक अच्छा भाई बन जायेगा, और अपने साथ जोश और जीवन की भावना घर ले कर आयेगा, ना कि सामान्यतः वो जैसे निराश और थका हुआ घर आता है।

बाद में जब वो घर का मुखिया बन जायेगा तो वो घर को उस प्रेम से भर देगा जिस प्रेम में उसका अपना पालन पोषन हुआ है, और पीढी दर पीढी खुशहाली फैलती और बढ़ती ही जायेगी।

ऐसा बालक जब पिता बन जायेगा तो वो अपने पुत्र को इस तरह नहीं देखेगा जैसे कि बहुत से लोग आज देखते हैं, नितांत स्वार्थी द्रष्टिकोण से, मानो वो पुत्र मात्र संपत्ती का एक अंश है, मानो वो पुत्र मात्र पिता के लिये ही अस्तित्व में है।

कुछ अभिभावक अपने बच्चों को अपनी संपन्नता बढ़ाने और पेशों के द्वारा, जो वो अपनाते हैं, या शादियों के द्वारा, परिवार की इज़्ज़त बढ़ाने का साधन ही मानते हैं, बिना ये सोचे की बच्चों की अपनी इच्छाएं क्या हैं।

बुद्धिमान पिता अपने पुत्र के साथ मित्र की तरह परामर्श करता है, ये जानने की कोशिश करता है की पुत्र की इच्छाएं क्या हैं, और उन इच्छाओं को पूरा करने के लिये अपने अनुभव से सहयोग करता है। बुद्धिमान पिता ये हमेशा याद रखता है की उसका पुत्र एक अहम है जो पिता को पुत्र की प्रगति में सहयोग करके अच्छे कर्म करने का मौका देने आया है।

वो पिता कभी ये नहीं भूलेगा की बेटे का शरीर तो जवान है पर उसमें आत्मा उसकी अपनी आत्मा जितनी ही वृध है, और इसीलिये उसको इज़्ज़त देनी चाहिये और स्नेह पूर्ण व्यवहार करना चाहिये।

दोनो जगह, घर में और पाठशाला में, प्रेम सेवा के छोटे छोटे कामों में स्वयं ही व्यक्त होने लगेगा, और ये एक आदत बन जायेगी जिसके परिणामस्वरूप बड़े बड़े और बहादुरी पूर्ण महान काम होने लगेंगे जिनसे राष्ट्रा महानता को प्राप्त करेगा।

गुरु जोर देकर कहते हैं की निर्दयता प्रेम के विरोध में किया गया पाप है, और इच्छा पूर्वक और अनिच्छा पूर्वक की गयी निर्दयता का फरक समझते हैं।

गुरु कहते हैं, "इच्छापूर्वक की गयी निर्दयता दूसरे प्राणी को दर्द देने के लिये जानबूझकर की जाती है, और ये सबसे बड़ा पाप है। ये एक दुष्टात्मा का काम है मनुष्य का नहीं।"

लट्ठ का प्रयोग इस प्रकार की निर्दयता अंतर्गत आता है। गुरु इच्छापूर्वक की गयी निर्दयता के बारे में कहते हैं, "विद्यालय के बहुत से शिक्षक इस प्रकार की निर्दयता करने के आदी होते हैं।"

दंड और अत्याचार में वो सब शब्द भी शामिल होते हैं जो छात्र की भावना को और उसके आत्म सम्मान को क्षति पहुंचाने के लिये प्रयोग किये जाते हैं।

कुछ देशों में शारीरिक दंड निषेध है, परंतु अधिकांश देशों में ये अभी भी प्रचलित है। लेकिन मेरे गुरु ने कहा, "ये क्रूर लोग अपनी निर्दयता को छुपाने के लिये कहते हैं की ये तो प्रचलन है, लेकिन अपराध को ये कहकर की बहुत से लोग करते हैं अपराध की श्रेणी से हटाया नहीं जा सकता।"

कर्म में प्रचलन को कोई हिसाब नहीं होता, और निर्दयी कर्म सबसे भयंकर होता है।

शिक्षा में दंड का प्रयोजन गलत ही नहीं मूर्खतापूर्ण है। एक शिक्षक जो अपने छात्रों को भयभीत करके वो करने में लगा तो सकता है जो शिक्षक चाहता है, पर वो ये नहीं देखता कि छात्र उसकी बात तबतक ही मानते हैं जबतक वो कक्षा में होता है, और जैसे ही वो आँखों से दूर होता है छात्र उसके बनाये नियमों को ध्यान नहीं देते, और उन्हें तो उन नियमों को तोड़ने में आनंद आता है क्योंकि वो छात्र उस शिक्षक को अच्छा नहीं मानते।

परंतु यदि उनसे वो करवाना चाहता है जो वो चाहता है क्योंकि उसके छात्र उससे प्रेम करते हैं तो छात्र उसकी अनुपस्थिति में भी उसके नियमों का पालन करते हैं और शिक्षक के कार्य को और भी आसान बना देते हैं।

छात्रों के मन में भय और घृणा का विकास करने के स्थान पर बुद्धिमान शिक्षक उन छात्रों में से प्रेम और निष्ठा निकाल लेता है, और उनकी अच्छाइयों को और भी बल प्रदान करता है, और उनके क्रमिक विकास में उनको सहयोग देता है।

किसी उद्दंड छात्र को सुधारने के स्थान पर विद्यालय से निकल देने का विचार बिल्कुल गलत है।

जब कभी उसके और साथियों के लिये किसी छात्र को अलग करना भी पड़े तो उस छात्र की अच्छाइयां नहीं भूलनी चाहिये। वास्तव में विद्यालय का पूरा अनुशासन छात्रों के अच्छे गुणों को ध्यान में रखकर लगाना चाहिये, ना की शिक्षक को कठिनाई से बचने के लिये। प्रेम करने वाला शिक्षक समस्याओं की तरफ़ ध्यान नहीं देता।

अनिच्छा पूर्वक की गयी निर्दयता प्रायः विचारशून्यता के कारण ही होती है, और शिक्षक को ना तो अपने शब्दों में और ना ही विचारों के अभाव में अपने कार्य में कठोर नहीं होना चाह्ये।

बाहर की किसी समस्या या क्रोध के कारण, अथवा किसी और महत्वपूर्ण कार्य को करते समाये, प्रायः शिक्षक जल्दी से बोले गये शब्दों से छात्रों को दर्द पहुंचते हैं।

शिक्षक शायद अपने बोले गये कठोर शब्दों को कोई छोटी मोटी घटना मान कर भूल सकता है, परंतु ऐसे अधिकांश घटनाक्रमों में संवेदनशील छात्र का मन दुख जाता है, और वो छात्र उन शब्दों के बारे में सोचना है और अंत में अनेकों प्रकार के मूर्खतापूर्ण अतिशयोक्तियों की कल्पना करने लगता है।

इस तरह शिक्षकों और छात्रों के बीच असमंजस उत्पन्न हो सकता है, वैसे तो छात्रों को ये धैर्य रखना सीखना ही चाहिये और उदार होना चाहिये, और ये समझना चाहिये की शिक्षक उनको सहयोग करने के लिये आतुर है, पर उसी तरह शिक्षक को भी अपने शब्दों का प्रयोग करते समय सावधान रहना चाहिये, और शिक्षक के शब्दों और कार्यों में विनम्रता ही होनी चाहिये चाहे शिक्षक कितना भी व्यस्त क्यों ना हो।

यदि शिक्षक अपने छात्रों के साथ हमेशा विनम्र रहता है तो वो अपने से छोटे छात्रों को आसानी से कुछ भी सीखा सकता है। वास्तव में वो विनम्रता से किसी भी जीवित प्राणी को कुछ भी सीखा सकता है।

बड़े छात्रों को, जो स्वयं विनम्र और चतुर हैं, सड़कों में घूमने वाले जानवरों की अवस्था का अवलोकन करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये, और यदि वो किसी भी प्रकार की निर्दयता जानवरों के प्रति देखते हैं तो उन्हें क्रूरता करने वाले व्यक्ति को हाथ जोड़ कर विनम्रता से पशुओं के साथ कठोरता ना बरतने के लिये अनुरोध करना चाहिये।


छात्रों को सीखना चाहिये की कोई भी ऐसा कार्य जिसमे जानवरों का शिकार और हत्या समावेशित हो खेल नहीं कहा जा सकता।

खेलों और शारीरिक अभ्यास वाले खेलों को बढ़ावा देना चाहिये और जानवरों को घायल करने और मारने जैसे कार्यों को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये।

मेरे गुरु कहते हैं, "वो सभी लोगों के भाग्य में अंत में निर्दयता ही आती है जो लोग जान बूझकर भगवान के प्राणियों को मारते हैं और इसको खेल का नाम देते हैं।"

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