Monday, July 20, 2015

जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं 3: विवेक (J. Krishnamurti)

जे. कृष्णमूर्ति  कहते हैं 3: विवेक  (J. Krishnamurti)

(Translated from English to Hindi by Raja Sharma)

शिक्षक की अगली आवश्यक योग्यता विवेक होती है। मेरे गुरु ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान मनुष्य के लिये भगवान की योजना का होता है, क्योंकि भगवान की एक योजना है, और वो योजना है क्रमिक विकास।

क्रमिक विकास में हर छात्र का अपना स्थान होता है, और शिक्षक को ये ध्यान देना चाहिये कि वो स्थान क्या है, और शिक्षक उस स्थान पर छात्र को कैसे सर्वश्रेष्ठ सहयोग कर सकता है।

इसको ही हिन्दू धर्म को मानने वाले धर्म कहते हैं, और ये शिक्षक का कर्तव्य होता है कि वो छात्र के धर्म को पहचाने और इसकी पूर्ति में छात्र को सहयोग करे।

दूसरे शब्दों में, छात्र को वही शिक्षा देनी चाहिये जो उसके लिये योग्य हो, और शिक्षक को इस शिक्षा को छानने में उसे अपने छात्र को देने में अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिये।

इन अवस्थाओं के अंतर्गत, छात्र की प्रगति उसके पूर्व जन्मों की धारणाओं का अनुसरण करते हुए होती है, और वो छात्र उन सब चीजों को सच में याद करेगा जो उसको पहले से आती थी।

महान गुरु ने कहा, "क्रमिक विकास का तरीका पुनर्व्यवस्था अंतर्गत लगातार डूबना है और ये पुनर्जनम और कर्म से होता है।"

जबतक शिक्षक को ये जानकारी नहीं होती, वो क्रमिक विकास में वैसे काम नहीं कर सकता जैसे करना चाहिये, और उसका और उसके शिष्यों का बहुत समय व्यर्थ होगा।

विषयों को छानने की प्रक्रिया में और उनको कैसे पढ़ाना  है में विवेक की अवश्यकता होती है। महत्व के अनुसार, सबसे पहले धर्म और नैतिक मूल्य आते हैं, और इनको विषय के रूप में नहीं पढ़ाना चाहिये परंतु इनको विद्यालय के जीवन की आधारशिला और वातावरण बनाना चाहिये, क्योंकि इनकी अवश्यकता हर छात्र को होती है चाहे उसने बाद के जीवन में जो कुछ भी करना हो।

धर्म हमको सिखाता है कि हम सब एक आत्म के अंग हैं, और इसीलिये हमें एक दूसरे को सहयोग करना चाहिये।

मेरे गुरु कहते थे कि लोग अपने लिये वही रास्ते खोजने का प्रयास करते हैं जो उनके विचार में उनके लिये सुखद होते हैं, पर वो ये नहीं समझते कि सभी लोग एक ही हैं, और इसीलिये जो भगवान की इच्छा होती है वही सबके लिये सुखद होता है।

और गुरु ये भी कहते थे कि आप अपने भाई को सहयोग उन चीजों के द्वारा कर सकते हैं जो आप दोनो में सामान्य हों, और वही दैविक जीवन होता है। ये पढ़ाना ही धर्म पढ़ाना है, और इसके अनुसार जीना ही धार्मिक जीवन जीना है।

वर्तमान में विद्यालयों के अपने प्रबन्धों के कारण स्थायी नैतिक शिक्षा विस्तृत रूप में व्यर्थ हो गयी है।

विद्यालय का दिन धार्मिक सेवा के स्वभाव से शुरू होना चाहिये, सामान्य उद्देश्य और सामान्य जीवन के बारे में बताते हुए, ताकि सभी छात्र जो अलग अलग घरों से और अलग अलग जीवन शैलियों से आते हैं विद्यालय में एकता के सूत्र में बांध सकें।

ये एक अच्छी योजना होगी यदि विद्यालय के दिन का प्रारंभ थोड़े संगीत और गायन से शुरू हो ताकि सभी छात्र जो जल्दी जल्दी घर से खाना खाकर विद्यालय को भागते हैं थोड़ा शांत हो जायें और विद्यालय का दिन एक व्यवस्थित ढंग से शुरू कर सकें।

इसके बाद एक प्रार्थना होनी चाहिये और एक छोटा पर सुन्दर व्यक्तव्य जो छात्रों के सामने आदर्श प्रस्तुत कर सके।

पर यदि इन आदर्शों को उपयोगी बनाना है तो ये आदर्श दिन भर विद्यालय में अभ्यास करने चाहिये ताकि धर्म की आत्मा सभी अध्यायों और खेलों में समावेशित रहे।

उदाहरण के लिये शक्तिशाली ने कमजोर को सहयोग करना चाहिये धार्मिक घंटे में सिखाते हैं, और फिर भी दिन भर शक्तिशाली छात्र कमजोर छात्रों को पीछे छोड़ने में लगे रहते हैं, और सफल छात्रों को उनकी सफलता के लिये पुरस्कार भी दिये जाते हैं।

ये पुरस्कार कतिपय छात्रों को ईष्यालु बना सकते हैं और कई छात्रों को हतोत्साहित कर सकते हैं। इन पुरस्कारों से संघर्ष का मनोबल उत्तेजित होता है। सेंट्रल हिन्दू कौलेज ब्रदरहुड का सिद्धांत है, "प्रेम और सेवा को और शक्ति प्रदान करना ही आदर्श पुरस्कार होता है।"

यदि ये पुरस्कार अच्छे कामों, औरों को सहयोग करने के लिये, और अच्छे व्यवहार के लिये दिये जायें तो बहुत अच्छा है, प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करने के लिये ना दिये जायें।

वास्तव में विद्यालय में चरित्र और सहयोग को सम्मान दिया जाना चाहिये ना कि दिमाग और शरीर की शक्ति को; शक्तिशाली बनाने की तालीम देनी चाहिये और शक्ति का विकास करना चाहिये, परंतु कमजोर को पराजित करने के लिये पुरस्कृत नहीं करना चाहिये।

विद्यालय के ऐसे जीवन के द्वारा विश्व में ऐसे मनुष्य जायेंगे जो राष्ट्र के लिये उपयोगी स्थानों में काम करेंगे नाकि सिर्फ अपने लिये पैसे और शक्ति संकलन करेंगे।

देशभक्ति और राष्ट्रा प्रेम नैतिक शिक्षा का एक महत्वपूर्ण अंग होता है। विद्यालय में छोटे से परिवार की सेवा का भाव सीखने के बाद वो छात्र बड़ा होकर स्वभाविक रूप में राष्ट्र के बड़े परिवार की सेवा करने लगेगा।

देशभक्ति का पाठ बहुत सावधानी से पढ़ाना चाहिये ताकि छात्र और राष्ट्रों से घृणा ना करने लगे जैसा कि प्रायः होता ही है।

पढ़ने वाले अध्यायों के प्रबंधन करते समय विवेक की अवश्यकता होती है। जहां तक संभव हो सबसे कठिन विषय दिन के प्रारम्भिक घंटों में ही पढ़ाये जायें। चाहे जितनी भी व्यवस्थित ढंग से अध्यापन की शैली तैयार की गयी हो, छात्र दिन की शुरुवात की तुलना में दिन के अंत के घंटों में बहुत थक जाते हैं।

पढ़ाने के तरीकों, और मानसिक और शारीरिक शिक्षा के लिये भी विवेक की अवश्यकता होती है। शरीर का ध्यान और इसका विकास सबसे महत्वपूर्ण होता है क्योंकि स्वस्थ शरीर के बिना सब शिक्षा व्यर्थ होती है।

ये ध्यान रखना चाहिये कि एक छात्र सारा जीवन ही सीख सकता है यदि वो इतना बुद्धिमान है और वो ऐसा करना चाहता है, परंतु उसके विकास के शुरू के ही कुछ वर्षों में वो अपने शरीर का विकास कर सकता है और स्वस्थ शरीर के साथ अपना जीवन बिता सकता है।

छात्रों के दिमाग, और विशेष कर बहुत छोटे छात्रों के दिमाग पर तनाव बहुत अधिक होता है और बहुत लम्बे समय तक चलता है; इसीलिये अध्याय योजना छोटे छोटे खण्डों में होनी चाहिये, और शिक्षक को ये ध्यान रखना चाहिये की छात्र थक ना जायें।

इस तनाव को छात्रों से दूर रखने के लिये एक विवेकशील शिक्षक पढ़ाने के नये तरीके खोजेगा, जिनके द्वारा पढ़ाये जा रहे अध्याय मनोरंजक हो जायें, क्योंकि जो छात्र अध्याय में रुचि रखता है जल्दी थकता नहीं है।

मुझे स्वयं भी याद है की विद्यालय से घर आने के बाद हम कितने थके हुए होते थे, सिर्फ बिस्तर पर लेट जाने के सिवाय कुछ ना करने योग्य।

लेकिन भारत में छात्र को घर वापिस आ जाने के बाद भी आराम करने की अनुमती नहीं होती है क्योंकि उसको ग्रह कार्य करना पड़ता है, प्रायः एक शिक्षक के सहयोग के साथ, जबकि या तो उसे खेलना चाहिये या आराम करना चाहिये।

घर में पढ़ने वाले अध्याय दूसरी सुबह फिर शुरू हो जाते हैं उसके विद्यालय जाने से पहले, और इसके परिणामस्वरूप वो अपने अध्यायों को आनंद के साथ ना पढ़कर एक कठिन काम मानना शुरू कर देता है।

भारतीय घरों में छात्र अधिकांश ग्रह कार्य मंद प्रकाश में करते हैं और इसके परिणामस्वरूप छात्र की आँखों पर बुरा असर होता है। सब प्रकार के ग्रह कार्य समाप्त कर दिये जाने चाहिये। ग्रह कार्य से छात्र को दोगुनी मेहनत करनी पड़ती है और छात्र का जीवन एक गुलाम जैसा हो जाता है।

विद्यालय का समय भी बहुत लम्बा होता है, और एक विवेकी शिक्षक को जितना हो सके छात्रों को ज्ञान देते रहना चाहिये पर ये ध्यान रखते हुए कि उनकी रुचि कम ना हो। अगर वो पूरा अध्याय एक दिन में समाप्त नहीं कर सकता तो उसको दूसरे दिन जारी रखना चाहिये।

मैने तो सुना है की विलायत के गरीब विद्यालयों में भी प्रायः डाक्टर आकर छात्रों को जाँचते हैं ताकि उनको कोई आँखों का रोग ना लगे या और कोई शारीरिक कमी ना हो जाये।

शिक्षक और छात्र दोनो को ही स्वच्छ रहना चाहिये और स्वच्छ कपड़े पहनने चाहिये, और इसमें विवेक की अवश्यकता होती है।

शिक्षक ने कमजोर छात्रों पर चतुर छात्रों से अधिक ध्यान देना चाहिये।

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